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प्रसिद्ध उद्योगपति पद्मश्री श्रीमती कल्पना सरोज (Mrs. Kalpana Saroj)

जब हिम्मत करे इंसान

तब सहायता करे भगवान।।

दोस्तो आप सबने शूटर दादी के नाम से मशहूर चंद्रो तोमर का नाम तो अवश्य सुना होगा। यह उक्ति उन्हीं का है। लेकिन आज मैं शूटर दादी के बारे में बात नहीं करने वाला हूँ। आज मैं प्रसिद्ध उद्योगपति पद्मश्री श्रीमती कल्पना सरोज के बारे में बाते करने वाला हूँ। जिस पर शूटर दादी द्वारा कही वह पंक्ति शत—प्रतिशत फिट बैठती है। श्रीमती कल्पना सरोज जी ने हिम्मत की ओर उनका सहायता भगवान यानि पूरे कायनात ने की। आज वे किसी परिचय के मोहताज नहीं है।

आज भले ही पद्मश्री कल्पना सरोज 1200 करोड़ से अधिक की व्यापार की मालकिन है, पर उनकी संघर्षगाथा बिल्कुल अविश्वसनीय लगता है। अनुकुल ​परिस्थितियों में सफलता प्राप्त करना आसान है। परंतु प्रतिकूल परिस्थितियों में लीक से हटकर सफलता प्राप्त करना बिरलों से ही संभव है। भारतीय उद्योग जगत में और समाज में पद्मश्री कल्पना सरोज पलास के पेड़ की तरह ही हैं। सफलता प्राप्त करने के पूर्व कुछ भी उनके अनुकूल नहीं था। उनका जन्म गरीब परिवार में हुआ था। वह दलित, बौद्ध परिवार में पैदा हुई थी । शुरूआती दिनों में जहाँ उनका जीवन—यापन करना ही मुश्किल था, उद्योगपति बनने का सपना एक गल्प जैसा ही हो सकता है। गरीब, दलित, बौद्ध लड़की को पढ़ने का,सपने देखने का और सपने बुनने का अधिकार भारत जैसे देश में अभी भी नहीं है तो उसके समय में कितना मुश्किल काम रहा होगा, इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। क्योंकि कुछ चीजें जो कुछ के लिए सुलभ है वही कुछ के लिए दुर्लभ है। वे जिन्हें सुलभ है वे उनके मुश्किलों का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं जिनके लिए दुर्लभ है।

कल्पना का जन्म महाराष्ट्र के जिला अकोला के एक छोटे से गाँव रोपरखेड़ा में सन् 1961 में हुआ था। उनके पिता एक पुलिस हवालदार थे। उनका एक संयुक्त परिवार था। जिसमें दो भाई तीन बहनें, दादा—दादी तथा चाचा—चाची रहा करते थे। कल्पना पूरे परिवार के साथ एक पुलिस क्वार्टर में रहती थी और पास के ही एक सरकारी विद्यालय में पढ़ती थी। वह पढ़ाई में तो होशियार थी पर ​दलित होने के कारण उनको शिक्षकों एवं सहपाठियों की उपेक्षा झेलनी पड़ती थी। बचपन में उसे घर के कामों में हाथ बँटाना पड़ता था जैसे विद्यालय से लौटते समय गोबर उठाना, खेत में काम करना और लकड़ियाँ चुनना। कल्पना जी कहती हैं कि उनके मामाजी का समाज में रसूख था। वे गाँव के प्रधान भी थे। लेकिन उनको कल्पना जी का पढ़ना—लिखना लड़की होने के नाते अच्छा नहीं लगता था वे चाहते थे कि कल्पना जी की शादी जल्दी से जल्दी हो जाये। उनकी बात कल्पना जी के पिताजी टाल नहीं सके। फलत: कल्पना जी की शादी महज 12 वर्ष की उम्र में जिस समय वे सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी उनसे अधिक उम्र के एक लड़के से करवा दी गई। शादी के बाद वे मुंबई चली गई।

ससुराल में कल्पना जी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं हुआ। उन्हें तरह—तरह की यातनाएं दी जाती थी। उन्होंने खुद एक इंटरव्यु में बताया कि उनके ससुराल वाले उसे खाना नहीं देते ​थे, बाल पकड़कर बेरहमी से मारते थे, जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते थे। कभी खाने में नमक को लेकर मारते थे तो कभी कपड़े साफ ना धुलने पर धुनाई हो जाती थी। यह सब कुछ कल्पना जी सह रही थी पर उनकी हालत बहुत दयनीय हो गई थी। लगभग 6 महीने के बाद उनके पिता उनसे मिलने आये तो उनकी यह दशा देखकर उन्हें अपने साथ गाँव वापस ले गये।

जब कल्पना जी ससुराल से मायके लाई गई तो यहाँ भी उसे समाज के ताना सहना पड़ा। आस—पड़ोस लोग तरह—तरह के ताना मारते थे। लोग कहते थे साथ में परिवार के बुजुर्ग भी कहते थे कि ससुराल से लड़की का वापस अर्थी ही आनी चाहिए। यानि जीवित ससुराल से वापस मायके आना एक तरह से गुनाह था। उनके पिताजी उसे दुबारा पढ़ाना चाहते थे, लेकिन चारो तरफ से मुश्किल और कटाक्ष के कारण उनका मन पढ़ाई में नहीं लगा। थककर आत्महत्या करने का निर्णय लिया। उन्होंने खटमल मारने वाली जहर की तीन बोतलें खरीदीं और उसे लेकर अपनी बुआ के यहाँ चली गयी। क्योंकि वह पुलिस क्वार्टर में रहती थी और उनके पिता पुलिस में हवलदार थे। पिताजी का नाम खराब न हो इसलिए वह बुआ के घर जाकर जहर की तीनों बोतलें एक साथ पी ली।उस समय उसकी बुआ चाय बना रही थी। बुआ जब चाय लेकर कमरे में आई तो देखा कि कल्पना के मुँह से झाग निकल रहा है। आनन—फानन में उसे डॉक्टर के पास ले गये। छोटा जगह होने के कारण उनका बचना मुश्किल लग रहा था। डॉक्टर बार—बार उसे बड़े अस्पताल में ले जाने के लिए कह रहे थे लेकिन तब तक पुलिस वाले भी आ गये जो उनके पिताजी के जानकार भी थे। सबने उनका ईलाज वहीं करने के कहा क्योंकि अगर उनकी मौत हो जाती तो पुलिसवाले की बदनामी होती। अंतत: उनकी जान बच गई। पर जो रिश्तेदार मिलने के लिए आते थे वे कहते थे कि ये तुम क्या कर रही थी? अगर तुम मर जाती तो लोग यही कहते कि महादेव (उनके पिता का नाम महादेव था) की बेटी जरूर कोई गलत काम की होगी जिससे उसे मरना पड़ा। वहीं अस्पताल में जब वह बच गई तो सोचा कि जब कुछ करके मरा जा सकता है तो इससे अच्छा है कि कुछ करके जिया जाए। यही से उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। उन्हें अपने अंदर एक नई उर्जा महसूस हुई, अब वे जीवन में उँचाइ्यों को छूना चाहती थी।

इसके बाद वे कई जगह नौकरी पाने की कोशशि की पर छोटी उम्र और कम शिक्षा की वजह से सबसे पहले तो पुलिस में भर्ती नहीं हो सकी। नर्स बनना चाहती थी पर नहीं बन सकी।आर्मी में जाना चाही पर असफल रही। सिलाई का काम सीखकर काम शुरू की पर उसमें भी ज्यादा आमदानी नहीं हो रही थी। अंतत: मुंबई जाने का फैसला किया।

माँ उसे अकेली मुंबई भेजने के लिए तैयार नहीं थी। जब उसने ट्रेन में कूदकर जान देने की धमकी दी तो माँ राजी हो गई। कल्पना जी मुंबई आ गई एक चाचा के पास। वो सिलाई का काम जानती थी इसलिए चाचाजी उन्हें एक कपड़े की मिल में काम दिलाने ले गए। वह काम तो जानती थी पर बड़े शहर होने और लड़का—लड़की के एक साथ काम करने के डर के कारण वह मशीन चला नहीं सकी। अत: उसे दो रूपये प्रतिदिन के मजदूरी पर धागा काटने के काम पर रखा गया। कुछ दिनों तक धागा काटने का काम करने के बाद, वे डर पर काबू पा लिया और मशीन पर काम करने लगी, अब उन्हें सवा दो सौ रूपये महीने मिलने लगे। इसी बीच किसी बजह से इनके पिताजी की नौकरी छूट गई। अत: कल्पना जी ने पूरे परिवार को मुंबई अपने पास बुला ली।

धीर—धीरे जब सबकुछ ठीक होने लगा था, अचानक एक घटना घटी जो कल्पना जी को काफी आहत किया। उनकी बहन बीमार रहने लगी थी। पैसे के अभाव में उसका इलाज नहीं हो सका और एक दिन उसकी मौत हो गई। कल्पना जी को तब एहसास हुआ कि जीवन में गरीबी से बड़ी कोई बीमारी नहीं है। उसने निश्चय किया कि इस गरीबी रूपी बीमारी से वे अपने जीवन को बिल्कुल मुक्त कर लेगी। यानि ढेर सारा रूपया कमायेगी। वह टेलरिंग की कोर्स तो की ही थी। सोचने लगी कि बुटिक का काम भी शुरू करें। इसके लिए रूपया चाहिए था। लेकिन उसके पास तो रूपया था ही नहीं। इसलिए सरकार से लोन लेने के बारे में सोचा। काफी मेहनत के बाद वे सारे पेपर्स बनवाकर लोन लेने में सफल हुई। फिर एक दुकान किराये पर ली और काफी मेहनत करने लगी। 16—17 घंटे तक वह काम करने लगी। उसके मन में आया कि फर्नीचर का बिजनेस काफी लाभदायक है इसलिए इसे शुरू किया जाये। 50 हजार रूपया का लोन मिला ही था। एक शोरूम किराये पर लिया और मार्केट से फर्नीचर का सामान लाकर फर्नीचर का भी बिजनेस शुरू कर दी। इसी बीच जब उन्होंने लोन लेने के दौरान इसमें होने वाली परेशानियों को देखा एवं युवाओं को भटकते हुए देखा तो उसके मन में दूसरे युवाओं के लिए भी कुछ करने का मन हुआ। उसने शिक्षित बेरोजगारों को लोन दिलवाने के लिए एक शिक्षित बेरोजगार संगठन बनाई। जिसके मार्फत वह लोगों को लोन लेने में मदद कर सके। इस संगठन की ओर से समय—समय पर वह छोटे—छोटे प्रोग्राम आयोजित करती थी, जिसमें लोन मंजूर करने वाले अधिकारियों को भी बुलाती थी जिससे काफी मदद मिलती थी।

इसका फर्नीचर का बिजनेस बढ़िया चलने लगा फिर वह एक ब्यूटी पार्लर भी खोला। इसी दौरान उसने एक स्टील फर्नीचर के व्यापारी से दुबारा शादी की, जिससे एक पुत्री एवं एक पुत्र हुआ। पर दुख अभी भी कल्पना जी का पीछा नहीं छोड़ा था। उनके दूसरे पति की मृत्यु हो गई।

एक दिन एक आदमी कल्पना जी के पास आया और उसने अपना एक प्लॉट 2.5 लाख रूपये में बेचने का आफर दिया। कल्पना जी ने कहा कि 2.5 लाख तो उसके पास है ही नहीं वह यह प्लॉट कैसे खरीद सकती है। फिर उस आदमी ने कहा कि वह प्लॉट खरीद सकती है। वह चाहे तो एक लाख अभी दे दे बाकी बाद में। उसने जमा पूँजी और उधार लेकर 1 लाख रूपया उस प्लॉट के मालिक को दे दिया, लेकिन बाद में पता चला कि वह जमीन तो विवादस्पद है। हलांकि वह काफी कीमती प्लॉट था। कल्पना जी काफी मेहनत कर और दौड़—भागकर उस प्लॉट से जुड़े सारे मामले सुलझा लिेये। अब वह प्लॉट 50 लाख का हो गया। पर उस प्लॉट को डेवलप करने के लिए उसके पास रूपया नहीं था। इसलिए एक सिंधी डेवलपर से समझौता की और शेयर में उस प्लॉट को डेवलप करने के लिए सोची। यह बात उसके इलाके के लोगों को पचा नहीं कि एक बौद्ध महिला रियल स्टेट का बिजनेस करे। किसी ने उसकी  5 लाख की सुपारी दे दी। संयोग से हत्या की साजिश का उनको पता चला गया। उसने पुलिस से शिकायत की एवं गुंडे पकड़े भी गये। अपनी सुरक्षा के लिए वह पुलिस से रिवाल्वर के लाईसेंस के लिए अर्जी दी। जो उसे एक ही दिन में मिल गई। इस प्रकार वह अपने साथ एक रिवाल्वर रखने लगी। जब पुलिस वाले ने पूछा कि तुम रिवाल्वर तो ले रही हो पर क्या इसे चला भी पाओगी? तब उसने जबाव दिया कि जब तक मेरे रिवाल्वर में एक भी गोली शेष रहेगी कोई मुझे मार नहीं सकता है। अं​तत: उस प्लॉट पर निर्माण का काम पूरा हुआ और इसमें कल्पना जी को करीब 4.5 करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ।

Shri NR Kamani द्वारा 1960 में Kamani Tubes  की स्थापना की गई थी। कंपनी अच्छी चल रही थी पर 1985 में Labour Unions और Management  के बीच विवाद होने के कारण कंपनी बंद हो गई। 1988 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कंपनी दुबारा शुरू हुई जिसमें कंपनी का मालिकाना हक workers  के पास था। अनुभवहीनता के कारण workers  कंपनी को चला नहीं पाया। और कंपनी पर कर्ज बढ़ता गया। अंतत: फिर कंपनी बंद हो गई और इसके workers भूखे मरने लगे। अ​ब तक कल्पना जी अपने इलाके में काफी चर्चित हो चुकी थी। इसलिए बहुत से लोग उसके पास आते थे, अपनी —अपनी समस्याओं को लेकर।  Kamani Tubes के workers भी उसके पास आये और उनसे विनती करने लगे कि उन्हें मरने से बचा लें। शुरू में तो कल्पना जी 116 करोड़ के कर्ज में डूबे 140 कोर्ट केस  में फँसी कंपनी  में हाथ डालने से मना कर दी । पर जब उसे मजदूरों की दयनीय हालत के बारे में बताया गया तो उनका हृदय पिघल गया। वे उन मजदूरों की खातिर काम करने के लिए तैयार हो गई।            कंपनी के बोर्ड में आते ही कल्पना जी ने सबसे पहले उन 10 लोगों की टीम बनाई जो अपने—अपने Field के जानकार थे। हलंकि वे लोग इस कंपनी के साथ तो काम करना नहीं चाहते थे पर कलपना जी के कारण वे वहाँ काम करने के लिए राजी हो गये। फिर उन्होंने कंपनी का एक रिपोर्ट तैयार करवाई जिसमें सभी लेनदारों की सूची एवं उधारी की रकम दर्ज थी। इससे यह पता चला कि कंपनी पर जो कर्ज था, उसमें आधे से ज्यादा तो ब्याज ही थी।

किसी ने उन्हें उधार देने वालें बैंकों के प्रमुखों से बात करने की सलाह दी और इसी दौरान उन्हें पता चला कि वित्त मंत्री साहब इसमें जरूर कुछ न कुछ मदद कर सकते हैं। वे तत्कालीन वित्त मंत्री जी से मिलकर बताई कि Kamani Tubes के पास कुछ है ही नहीं । अगर ब्याज और पेनल्टी माफ कर दें तो वे कर्जदाताओं को मूलधन लौटा सकती हैं। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो कोर्ट कंपनी का Liquidation करने ही वाला है जैसा कि कमानी के बाकी दो कंपनियों का हुआ भी है। इससे बकायेदारों को कुछ भी नहीं मिलेगा।

वित्त मंत्री जी कल्पना जी को आश्वस्त किये कि वे जरूर कुछ करेंगे और उन्हें बैंकों के साथ मीटिंग करने के लिए बोले। बैंकों के साथ हुए मीटिंग में बैंक वाले कल्पना जी से बहुत प्रभावित हुए और वे न सिर्फ ब्याज और पेनल्टी माफ किये बल्कि मूलधन से भी 25 प्रतिशत कम भी किये।

कल्पना जी 2000 ई0 से कंपनी के लिए संघर्ष कर रही थी। सन 2006 ई में कोर्ट का निर्णय आया। कल्पना जी को कमानी इंडस्ट्रीज का मालिक बना दिया। इस निर्देश के साथ बैंक का लोन 7 साल में चुकाने का एवं मजदूरों का बकाया 3 साल में चुकाने का भी निर्देश था। कल्पना जी बैंक का लोन 1 साल में एवं मजदूरों का बकाया 3 महीने में ही चुका दिया। इसके साथ—साथ कंपनी का आधुनिकरण करते हुए धीरे—धीरे एक सिक कंपनी को लाभदायक यानि Profit देने वाली कंपनी बना दी। उनकी इस असराहनीय कार्य के लिए भारत सरकार ने उन्हें 2013 ई0 में पद्मश्री से नवाजा और कोई बैंकिग बैकग्राउंड का नहीं होते हुए भी भारतीय महिला बैंक के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में शामिल किया।

आदत सुधारें, जीवन सुधारें

यह दोहा तो आपलोग अवश्य सुने होंगे— करत—करत अभ्यास जड़मति होत सुजान। रसरी आवत—जात है सिल पर पड़े निशान। मतलब जिस प्रकार एक मुलायम रस्सी के रगड़ से ​कुँआ के पत्थर पर निशान हो जाता है उसी प्रकार लगातार अभ्यास करने से जड़मति यानि मूर्ख व्यक्ति भी सुजान यानि महाज्ञानि बन सकता है।

अंग्रेजी में एक कहावत है — Practice makes a man perfect यानि अभ्यास मनुष्य को संपूर्ण बनाता है। असल में लगातार किया गया काम या अभ्यास हमारे आदतों में शुमार हो जाता है। जब हम कोई काम आदतन करते हैं तो इसमें श्रम भी कम लगता हे और उसका परिणाम भी संतोषजनक होता है। हमारे दिनचर्या में जो काम शामिल है, उसके लिए हमें कभी अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं हुई। न ही वह काम कभी गड़बड़ हुआ। उसी प्रकार अगर किसी भी महत्वपूर्ण या बड़ा काम में सफलता सुनिश्चित करना हो तो हमें उस काम को आदतन करना होगा। काम को आदतन करने के लिए उस काम का पर्याप्त अभ्यास करना पड़ेगा। शोध से यह पता चला है कि किसी भी काम  को अगर हम लगातार कम से कम 21 दिनों तक करते हैं तो वह काम हमारे आदतों में शामिल हो जाता है। हो सकता कि इससे कुछ ज्यादा दिन लग जाये फिर भी हमें अगर काम में प्रवीणता चाहिए तो हमें लगा रहना होगा।हाँ एक बात का ध्यान रखना जरूरी है। लगातार मतलब बिना एक दिन नागा किये काम करना है।

असल में आदतन काम हम अवचेतन मन के द्वारा संपादित करते हैं। अगर ​थोड़ी सी जानकारी हम अवचेतन मन की हासिल कर लें तो हम जीवन में बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। हमारा मन एक है पर इसके दो भाग है— चेतन मन और अवचेतन मन । चेतन मन के द्वारा हम जागृत अवस्था में कार्य करते हैं पर अवचेतन मन हमेशा यानि 24 घंटे कार्य करते रहते हैं। जब हम सोये रहते हैं तब भी हमारा अवचेतन मन कार्य करते रहते हैं। जागृत अवस्था में भी अवचेतन मन काम करते रहते हैं।

एक उदाहरण से समझते हैं — जब हम साईकिल चलाना सीखते हैं तब शुरूआती दिनों में हम चेतन मन व्यवहार में लातें हैं परंतु जब हम अच्छी तरह साइकिल चलाना सीख जाते हैं तब हम अवचेतन मन व्यवहार में लाते हैं। जिससे हम ​बेहद कम मानसिक प्रयास के साईकिल चलाने में सफल हो जाते हैं। उसी प्रकार जब कोई काम हम लगातार कर अपनी आदत बना लेते हैं तो हम उस काम को बहुत कम मानसिक परिश्रम के एवं सटीकता से कर पाने में सफल हो  जाते हैं।

इस प्रकार हम अच्छी आदत बना कर अपेक्षित सफलता प्राप्त कर सकते हैं और बुरी आदतों को छोड़कर जीवन को सुखमय बना सकते हैं।

किस्मत बदलना हो तो संगति बदलिए

जीवन चलने का नाम है। आपने यह अवश्य सुना होगा। यहाँ चलने का मतलब प्रगति यानि विकास से है, न कि एक जगह से दूसरे जग​ह पर जाने से है। अगर हम जीवन के सभी क्षेत्रों में लगातार विकास नहीं करते हैं तो हमारा जीवन, मानव जीवन नहीं कहा जा सकता। भोजन, वंशवृद्धि और उम्र गुजार देना यह काम मानव और पशु में समान है। पशु सीमित चेतन और अवचेतन मन के सा​थ जीवन गुजारता है। पर मानव के पास असीमित मन होता है। इसलिए अविकसित मानव को मानव कहना उचित नहीं होगा।

हमारे पुराने ग्रंथों में भी दोपाया पशु का जिक्र है। जो इशारा करता है कि मानव हो हमेशा  प्रगतिशील रहना चाहिए। प्रगतिशील मानव ही विकसित मानव है।   अब सवाल उठता है कि आम आदमी अपने जीवन में लगातार प्रगति कैसे करे?

प्रिय दोस्तों, प्रगति के विभिन्न कारकों में से एक कारक हैं संगति। आप यह कहावत अवश्य सुने होगें— संगत से गुण होत है संगत से गुण जात। हमारे जीवन में संगति का महत्व सबसे उपर है।

बात सीधी है जैसा बनना है वैसे व्यक्ति का संगति कीजिए यानि दोस्ती कीजिए। आप एक जैसे लोगों का समूह जीवन के हर क्षेत्र में देख सकते हैं। यहाँ तक कि आप अपने पाँच दोस्तों के आमदानी का औसत निकालिए यह आपके आमदानी के बराबर होगा।

अगर आपको धनी बनना है तो धनी लोगों से संगति करना होगा। साथ ही धन से भी संगति करना होगा। अक्सर गरीब लोग धन—संपत्ति से दुश्मनी करते हैं यानि धनी लोगों के प्रति गरीबों का नजरिया बहुत अच्छा नहीं होता है। गरीब अक्सर धनिकों एवं धन की बुराई करते रहते हैं। धन की बुराई कर आप धनी नहीं बन सकते है।

कबीरदास जी ने कहा कि

कबीरा संगति साधु की, ज्यों गंधी की वास।

                                     जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुभास।।

मतलब अगर आप साधु से संगति यानि दोस्ती करते हैं तो उससे प्रत्यक्ष रूप से कुछ प्राप्त नहीं होने पर भी आप बहुत कुछ पा लेंगे। जैसे गंधी या इत्र बेचनेवाला के पास अगर आप रहते हैं तो बिना उससे इत्र लिये ही आपका बदन सुगंध से भर जायेगा। जिस प्रकार अच्छा दोस्त से आपको लाभ होता है। इसके विपरीत यदि आपकी संगति सही नहीं है यानि कुसंगति से आपको नुकसान होगा। एक कहावत है एक सड़ा आम पूरी टोकरी के आम को सड़ा देता है।  अत: दोस्त एवं संगति सोच—समझकर करनी चाहिए।

गुण बड़ा दोष छोटे

सप्तदश अध्याय नीति : 19-21

गुण बड़ा दोष छोटे

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के उन्नीसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक गुण सारे दोषों को नष्ट कर देता है।

वहीं बीसवी नीति में आचार्य कहते हैं कि जवानी, धन—संपत्ति की अधिकता, अधिकार और विवेकहीनता इन चारों में से प्रत्येक बात अकेली ही मनुष्य को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

बीसवी नीति में आचार्य कहते हैं कि जिनके हृदय में परोपकार की भावना होती है उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती है और पग—पग पर संपत्तियाँ प्राप्त होती है।

परदुख कातरता

सप्तदश अध्याय नीति : 18

परदुख कातरता

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के अठारहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि राजा, वेश्या, यमराज, आग, चोर, बालक, भिखारी और ग्राकंटक ये आठ लोग व्यक्ति के दुख को नहीं समझते।

गुणहीन पशु

सप्तदश अध्याय नीति : 16—17

गुणहीन पशु

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के सोलहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भोजन, नींद, भय तथा मैथुन करना ये सब बातें मनुष्यों एवं पशुओं में समान रूप से पायी जाती है किंतु ज्ञान मनुष्य में ही पाया जाता है। अत: जिस मनुष्य में ज्ञान नहीं हो उसे पशु ही समझना चाहिए।

वही सतरहवी नीति में आचार्य कह​ते हैं कि यदि मूर्ख व्यक्ति गुणी लोगों का आदर नहीं करते हैं तो इससे गुणी का कोई नुकसान नहीं होता। उन्हें आदर देनेवाले अन्य लोग मिल जाते हैं किंतु मूर्ख को गुणी लोग नहीं मिलते।

घर में स्वर्ग का सुख

सप्तदश अध्याय नीति : 15

घर में स्वर्ग का सुख

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के पंद्रहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस घर में शुभ लक्षणोवाली स्त्री हो, धन संपत्ति हो, विनम्र गुणवान पुत्र हो और पुत्र का भी पुत्र हो तो स्वर्ग लोक का सुख भी इससे अधिक नहीं होता।

शोभा

सप्तदश अध्याय नीति : 12—14

शोभा

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के बारहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि नाई के घर जाकर दाढ़ी, बाल नहीं कटाने चाहिए। पत्थर में घिसा हुआ चंदन शरीर में नहीं लगानी चाहिए। अपना मुँह पानी में नहीं देखना चाहिए। ऐसा करने पर सभी की सुंदरता नष्ट हो जाती है।

वहीं तेरहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि ये तीनों कार्य करने वालों का संपत्ति भी नष्ट हो जाती है।

चौदहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि तुण्डी के सेवन से बुद्धि तत्काल नष्ट हो जाती है, वच के सेवन से बुद्धि का शीघ्र विकास होता है। स्त्री के साथ संभोग करने से शक्ति तत्काल नष्ट हो जाती है तथा दूध का सेवन करने से खोई हुई ताकत फिर से लौट आती है।

सुंदरता

सप्तदश अध्याय नीति : 11

सुंदरता

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के ग्यारहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हाथों की सुंदरता दान से है न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से शुद्ध होता है, न कि चंदन लगाने से, सज्जन सम्मान से संतुष्ट होते हैं न कि भोजन से, आत्मा का ज्ञान होने पर ही मोक्ष मिलता है न कि श्रंगार करने से।

पति परमेश्वर

सप्तदश अध्याय नीति : 10

पति परमेश्वर

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के दसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि स्त्री न दान से न सैकड़ों व्रतों से और न तीर्थों की यात्रा करने से उस प्रकार शुद्ध होती है जिस प्रकार अपने पति के चरणों को धोकर प्राप्त जल के सेवन से शुद्ध होती है।

कुपत्नी

सप्तदश अध्याय नीति : 9

कुपत्नी

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के  नवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पति की आज्ञा के बिना उपवास लेकर व्रत करनेवाली पत्नी पति की आयु को हर लेती है। ऐसी स्त्री अंत में नरक में जाती है।

दुष्टता

सप्तदश अध्याय नीति : 8

दुष्टता

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के आठवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सर्प के दांत में विष होता है, मक्खी के सिर में, बिच्छू की पूंछ में तथा दुष्ट के पूरे शरीर में विष होता है।

माँ से बढ़कर कोई नहीं

सप्तदश अध्याय नीति : 7

माँ से बढ़कर कोई नहीं

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के सातवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अन्न और जल के समान कोई दान नहीं है। द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है। गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है। माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।

लाचारी

सप्तदश अध्याय नीति : 6

लाचारी

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के  छठी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शक्तिहीन व्यक्ति साधु बन जाता है, निर्धन ब्रह्मचारी बन जाता है, रोगी भक्त कहलाने लगता है और बूढ़ी स्त्री पतिव्रता बन जाती है। ये सब लाचारी के काम है।

विडंबना

सप्तदश अध्याय नीति : 5

विडंबना

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के  पाँचवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि रत्नों की खान समुद्र शंख का पिता है। धन की देवी लक्ष्मी उसकी सगी बहन है। इतना सब होने के बाद भी यदि शंख भीख मांगता है तो इसे उसके भाग्य की विडंबना ही कहा जायेगा।

तप की महिमा

सप्तदश अध्याय नीति : 3—4

तप की महिमा

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के तीसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि तप सबसे शक्तिशाली हैं जो दूर है, दुराध्य है, वह सब तप से  साध्य है। यानि तपस्या या कठिन परिश्रम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

वहीं चौथी नीति में आचार्य कहते हैं कि लोभी व्यक्ति को दूसरे के अवगुणों या गुणों से कोई मतलब नहीं होता। वह अपने स्वार्थ को देखता है। चुगलखोर व्यक्ति पाप से नहीं डरता वह चुगली कर कोई भी पाप कर सकता है। सच्चे व्यक्ति को तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई सबसे बड़ी तपस्या है। मन शुद्ध होने पर व्यक्ति को तीर्थों में जाने या न जाने से कोई मतलब नहीं रहता। यदि कोई समाज में प्रसिद्ध हो चुका हो तो उसे सजने—सँवरने की आवश्यकता नहीं होती। विद्वान को धन की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि विद्या सबसे बड़ा धन है। बदनामी अपने आप में मृत्यु है।

शठ के साथ शठता

सप्तदश अध्याय नीति : 2

शठ के साथ शठता

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के दूसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि उपकारी के साथ उपकार, तथा हिंसक के साथ प्रतिहिंसा करनी चाहिए। दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। इसमें कोई दोष नहीं है।

गुरू का महत्व

सप्तदश अध्याय नीति : 1

गुरू का महत्व

चाणक्य नीति के सप्तदश अघ्याय के पहली नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कोई भी विद्या गुरू से ही सीखी जा सकती है। स्वयं पुस्तकों से विद्या प्राप्त करनेवाले व्यक्ति को विद्वानों की सभाओं में इज्जत नहीं मिलती।

विद्या और धन समय के

षष्ठदश अध्याय नीति: 20

विद्या और धन समय के

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के बीसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पुस्तक की विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन समय पर काम नहीं आती।

मीठे बोल

षष्ठदश अध्याय नीति : 17—19

मीठे बोल

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के सतरहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मधुर बचन बोलना, दान के समान है। इससे सभी मनुष्यों को आनंद मिलता है। अत: बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। हमेशा मधुर ही बोलना चाहिए।

वहीं अठारहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि इस संसार रूपी वृक्ष के अमृत के समान दो फल है— सुंदर बोलना एवं सज्जनों की संगति करना।

उन्नीसवी नीति में आचार्य कहते हैं कि जन्म—जन्म तक अभ्यास करने पर ही मनुष्य को दान, अध्ययन और तप प्राप्त होते हैं।

निर्धनता

षष्ठदश अध्याय नीति : 16

निर्धनता

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के सौलहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि निर्धनता जीवन का अभिशाप है। समाज में भाई—बंधुओं के बीच गरीबी में जीना अच्छा नहीं है। निर्धन होकर समाज में जीने से वनवास अच्छा है।

याचकता

षष्ठदश अध्याय नीति : 15

याचकता

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के  पंद्रहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मांगने से मर जाना अच्छा है। तिनका हलका होता है, तिनके से हलकी रूई होती है और याचक यानि मांगनेवाला रूई से भी हलका होता है। इसीलिए भिखारी की कोई इज्जत नहीं होती।

सार्थक दान

षष्ठदश अध्याय नीति : 14

सार्थक दान

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के चौदहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि योग्य तथा जरूरतमंद को ही दान देना चाहिए। अन्य दान, यज्ञ आदि नष्ट हो जाते हैं किंतु योग्य जरूरतमंद को ​दिया गया दान तथा किसी जीवन रक्षा के लिए दिए गये अभयदान का फल कभी नष्ट नहीं होता।

अनुचित धन

षष्ठदश अध्याय नीति : 11—13

अनुचित धन

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के  ग्यारहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो धन किसी को दुखी करके प्राप्त हो, जो चोरी, तस्करी, काला बाजारी आदि अवैध तरीकों से मिला हो, ऐसा धन पाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

वहीं बारहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि कंजूस का धन समाज के किसी काम में नहीं आता है। मूर्ख के धन का भी दुरूपयोग ही होता है। धन का उपयोग समाज कल्याण के लिए होना चाहिए।

वहीं तेरहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि धन, जीवन , स्त्री तथा भोजन की इच्छा कभी पूरी नहीं होती। इनकी चाह सदा बनी रहती है। इसी चाह को लेकर दुनिया के लोग मरते आये हैं, मर रहे हैं तथा आने वाले समय में भी ऐसा ही होता रहेगा।

महानता

षष्ठदश अध्याय नीति : 6—10

महानता

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के छठी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है न कि किसी ऊँचे स्थान पर बैठ जाने से। जैसे राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौआ गरूड़ नहीं बनता।

वहीं सातवी नीति में आचार्य कहते हैं कि गुणवान व्यक्ति का सभी जगह आदर किया जाता है। धनी व्यक्तियों का सब जगह सम्मान नहीं होता है। पूर्णिमा का चन्द्रमा चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसमें दाग होने के कारण व्यक्ति उसकी पूजा नहीं करते। जबकि दूज के चांद को सभी सिर झुकाते हैं, क्योंकि उसमें दाग नहीं होता है, गुण होते हैं।

वहीं आठवी नीति में आचार्य कहते हैं कि व्यक्ति अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करते। अपनी प्रशंसा स्वयं करने पर इन्द्र भी छोटा हो जाता है।

नौवी नीति में आचार्य कहते हैं कि गुण भी किसी योग्य व्यक्ति में होने पर सुंदर लगता है। जैसे सोने में जड़े जाने पर ही रत्न भी सुंदर लगता है।

दसवी नीति में आचार्य कहते हैं कि गुणी व्यक्ति भी उचित स्थान नहीं मिलने पर दुखी हो जाता है। जैसे निर्दोष मणि को भी अपने लिए सोने के आधार की आवश्यकता होती है। जिसमें उसे जड़ा जा सके।

विनाश काले विपरीत बुद्धि

षष्ठदश अध्याय नीति : 5

विनाश काले विपरीत बुद्धि

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के पाँचवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विनाश आने पर बुद्धि साथ छोड़ जाती है। सोने की हिरन न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा फिर भी भगवान राम को क्या सूझी, सोने के हिरन को देखकर मन ललचा गया और उसे मारने चल दिए। इससे स्पष्ट होता है कि परेशानियों के वक्त व्यक्ति की अक्ल ही मारी जाती है।

स्त्री का चरित्र

षष्ठदश अध्याय नीति : 2—4

स्त्री का चरित्र

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के दूसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि स्त्रियां एक से बात करती है कटाक्ष से दूसरे को देखती है और मन से किसी तीसरे को चाहती है। उनका प्रेम किसी एक से नहीं होता।

वहीं तीसरी नीति में आचार्य कहते हैं कि जो मूर्ख पुरूष यह समझता है कि यह स्त्री उसपर रीझ गयी है। वह इस भ्रम में उस स्त्री के वश में हो जाता है और खिलौने की चिड़िया के समान नाचने लगता है।

वहीं चौथी नीति में आचार्य कहते हैं कि धन पाने पर सभी में घमंड हो जाता है। विषय—बुराईयों में फंसकर किसी के दुखों का फिर अंत नहीं होता। स्त्रियां सभी पुरूषों के मन को डिगा देती हैं। राजा का कोई व्यक्ति प्रिय नहीं हो सकता। मौत की आँखों से कोई नहीं बच सकता। भीख मांगने पर किसी को आदर नहीं मिलता। दुष्टों के साथ रहकर कोई सकुशल नहीं रह सकता।

संतान

षष्ठदश अध्याय नीति : 1

संतान

चाणक्य नीति के षष्ठदश अघ्याय के पहली नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो मनुष्य न तो मोक्ष पाने के लिए परमात्मा का ध्यान करता है न स्वर्ग पाने के लिए धर्म करता है और न स्त्री के साथ संभोग करता है। ऐसे मनुष्य को जन्म देकर मां सुखी नहीं होती।

पुण्य से यश

पंचदश अध्याय नीति : 19

पुण्य से यश

चाणक्य नीति के पंचदश अघ्याय के उन्नीसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक छोटे से पर्वत को कृष्ण हाथों से आसानी से उठा लिया। केवल इसी से उनको स्वर्ग तथा पृथ्वी में गोवर्धन कहा जाता है। वे तीनों लोकों को धारण करनेवाले हैं और गोपी उनको अपने स्तनों के अगले भाग में उठा लेती है। किंतु उनके इस काम को कहीं कोई गिनती नहीं है। सच ही कहा है कि व्यक्ति को यश भी उनके पुण्यों या अच्छे कामों से ही मिलता है।