आज का मानव एक सरल रेखा पर दौड़ रहे हैं बेतहाशा।
क्षण भर में वे अपने लक्ष्य को पाने का करते हैं आशा।
उन्हें फुरसत नहीं हैं, पीछे देखने की।
उन्हें जरूरत नहीं है, बगल झाँकने की।
उन्हें जरूरत नहीं है औरों के साथ चलने की।
उन्हें आदत नहीं हैं अपनी गति आँकने की।
उन्हें फिर भी घेरती नहीं है कभी निराशा।
क्योंकि वे सिर्फ अपनी मकसद के लिए जीते हैं।
उन्हें सिर्फ अपनी लक्ष्य की पचान है।
बंधु-बांधव से उन्हें सिर्फ नाम का नाता है।
दौलत की रोशनी ही उनकी शान है।
दौलत ही बदल दी है उनकी पाशा।
आत्मा को उन्होंने कैद कर रखा है।
इसके बगैर वे जिंदगी का नवरस चखा है।
अपनी किस्मत को खुद ही,
दूसरों के रक्त से लिखा है।
उनके बाजुओं में ताकत है अच्छा खासा।
राम-रहीम से नाता पुराना हो गया है।
मंदिर-मस्जिद गिरजे लूटने का ठिकाना हो गया है।
कहने को जात-पाँत का भेदभाव मिटा रहा है।
पर धर्म चरित्र उनका पहला निशाना है।
हर रोज कर रहे हैं नये-नये तमाशा।
संजय कुमार निषाद