तन तेरी, मन तेरी।
और माँ यह जीवन तेरी।
है क्या मेरा जो करूं तुम्हें अर्पण ?
जो तेरा है, तुम्हें करूं कैसे समर्पण?
कली कुसुम की हार,
संगीत की मधुर झंकार।
विज्ञान लोक की अभिनव उपहार।
ग्रंथों कि हर अंकन तेरी।
हिमनद नालाऔं की नीर,
लघु-गुरू जड़ चेतन शरीर।
रजा-रंक और फकीर।
भू की कण-कण तेरी।
झंझाऔं की माया जाल,
विलासिता की महल विशाल।
तम प्रसारक और मशाल।
नृत्य की हर मंचन तेरी।
मैं ठहरा बिन्दु से भी लघु,
मेरी माँ फिर भी है तू।
सिवा तेरे और कहॉ जाऊं?
सहकर पीड़ घनेरी।
संजय कुमार निषाद