किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोक—टोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हमेशा कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है। भारत के संविधान के धारा 19 (1) के अधीन सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अगर बहुत सारे फायदे हैं तो इसके कुछ नुकसान भी है। इसके फायदे और नुकसान का मूल्यांकन करना कठिन काम है, क्योंकि मूल्यांकन करने वाला और पैमाना दोनों हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगे।
भारत में शासन के तीन अंग हैं— व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। लेकिन आजादी के पूर्व और पश्चात् में मीडिया की अहम भूमिका को देखते हुए भारतीय लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के रूप में माना जाने लगा। पत्रकारिता को एक प्रतिष्ठित कार्य माना जाने लगा। हलांकि इसे प्रतिष्ठित व्यवसाय का नाम कभी नहीं माना गया था। कहा गया है कि परिवर्तन संसार का नियम है। अत: इस क्षेत्र में भी समय के साथ परिवर्तन हो रहा है। पत्रकारिता अब सेवा न होकर एक बृहत व्यवसाय का रूप ले रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि मीडिया की साख भी अब बिक रही है पर बहुत उँचे दामों में। नहीं, बिल्कुल कम कीमत पर। मीडिया अब कोड़ियों के भाव बिक रही है पर इस सत्य को लोग अभी सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। चूँकि मीडिया पर अभी भी लोगों का विश्वास है एवं इसकी पहुँच आमजनों तक है। सच कहा जाये तो देश में परिवर्तन लाने की शक्ति अभी भी इसके पास है। इसीलिए विगत कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि मीडिया का व्यवसायीकरण बहुत तेजी से हो रहा है। जिसका काम खबर दिखाने का होना चाहिए वह खबर बना रहा है।
मीडिया का काम सिर्फ खबर पड़ोसनाभर नहीं था। जहाँ कहीं भी मानव मूल्यों पर आघात होता था, मीडिया सबसे पहले पहँचती थी। मीडिया समाज के सुख—दुख का साथी हुआ करती था। आजकल प्रिंट मीडिया एवं खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में वरिष्ठ पत्रकारों को पढिये या सुनिये, डिबेट में सुनये । जनता सरकार के नीतियों के कारण परेशान है। प्रशासन से त्रस्त है, प्रशासनिक लापरवाही के कारण मौतें हो रही है। पर ये पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषकरूपी पत्रकार सरकार का खुलेआम बचाव एवं समर्थन करते दिख रहे हैं। एकाध पत्रकार जो पत्रकारिता धर्म का पालन कर रहे हैं वे सरकार के कोपभाजन के शिकार तो हो ही रहे हैं साथ—साथ जनता के भी अनादर के शिकार हो रहे हैं। सारे के सारे मीडिया स्वतंत्र रहने के बजाय किसी न किसी राजनैतिक दल के पक्ष में अपना प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कार्यक्रम चलाती रहती है। जनता इसे समझ तो रही है, दुख की बात यह है कि इससे उसे मजा भी आ रहा है। कहा गया है कि अगर एक झूठ को हजार बार कहा जाये तो वह सच जैसा प्रतीत होने लगता है। बार—बार किसी विज्ञापन को देखने पर उस उत्पाद की छवि हमारे मानसिक पटल पर अंकित हो जाती है।जिसका परिणाम यह होता है कि हमारा मन उस उत्पाद के गुण— अवगुण का आंकलन किये बगैर विज्ञापन पर विश्वास कर हम उस उत्पाद को खरीद लेते हैं। व्यापार हो या राजनीति विज्ञापन का बोलबाला है । लोग सिर्फ विज्ञापन पर ही बेहतर ध्यान देकर बेड़ा पार कर रहे हैं। यही कारण है हमारे स्वदेशी उत्पादक विश्वस्तरीय उत्पाद बनाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। और राजनीति तो निम्नतम स्तर को पर कर चुकी है। राजनीति में भी नये—नये मैनेजमेंट गुरू अवतार ले रहे हैं। सबकुछ मैनेज कर लो और जीत सुनिश्चित है । झूठ बोलने की तो न कोई सीमा है न बोलने वाले को शर्मींदगी महसूस होती है। पहले पद की गरिमा बचाने के लिए लोग कुछ भी करते थे, अब लोग पद को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। मीडिया का काम स्वतंत्र एवं निष्पक्ष समाचार जनता तक पहुँचाने का न होकर किसी न किसी व्यापारी या राजनेताओं के पक्ष में माहौल बनाने का रह गया है। तो पत्रकार को अब आप पत्रकार कहेंगे या पक्षकार?