दोस्तों हमारे समाज में कुछ धारणाएँ ऐसी है कि लगता तो वह सच जैसा ही है और तो और समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों द्वारा वह मान्यताप्राप्त भी है, पर असल में वह सच नहीं है। बल्कि सच जैसे लगता है। समाज में इसे सच मान लिया गया है। आज भी इसे ज्यों के त्यों सच माना जा रहा है। समाज के पुरोधा, धार्मिक या सामाजिक उपदेशक सबका समर्थन है। सब इसका गुणगान भी करते हैं। पर असल में इसका दुस्प्रभाव अब दिख रहा है। लेकिन लोगों के समझ में नहीं आ रहा है।
एक आम धारणा है कि मनुष्य को दूसरों की सेवा करनी चाहिए, दूसरों के लिए जीना चाहिए, परोपकार करना चाहिए, दूसरों की मदद करनी चाहिए इत्यादि। हमारे सारे धर्मग्रंथों का सार तो यही है। और इसी विषय की महत्ता को समझाने के लिए रोज कथा होती है। सिर्फ एक धर्म की बात नहीं है। सभी धर्मों की लगभग यही कहानी है। अपने लिए जीने वालों को लोग स्वार्थी कहते हैं। अपना भला और बहुत भला सोचने वालों को लोग महत्वाकांक्षी कहते हैं। लेकिन इसका परिणाम तो हम सब देख ही रहे हैं। असल में परोपकार या दूसरों के बारे में सोचनेवाले को आप उँगली पर गिन सकते हैं। दूसरे तो छोड़िये, खुद के अलावा परिवार के अन्य लोगों के बारे में सोचने वाले भी कम होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार से एकल परिवार में समाज परिवर्तित तो हो ही चुका है। अब माँ—बाप उनके लिए भी बोझ बन रहे हैं जिनके पास करोड़ों—अरबों की संपत्ति है। तो वह धारणा—उपदेश कहाँ तक सच है? असल में यह दिमाग का गलत प्रोग्रामिंग है। किस क्षेत्र में भ्रष्टाचार नहीं है? किस क्षेत्र में बदनियति नहीं है? यह ढूँढना मुश्किल है। लोग भूख से मर रहे हैं। लोग बिमारी से मर रहे हैं। लोग प्राकृतिक आपदाओं से मर रहे हैं। लोग आपसी रंजिश से भी मारे जा रहे हैं। लोग धार्मिक युद्ध में मर रहे हैं। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं हैं जहाँ लोगों का असामयिक मौत नहीं हो रहा हो। कारण। कारण खोजने का जो प्रयास हो रहा है। वह सफल नहीं हो पा रहा है। क्योंकि हमारे दिमाग का प्रोग्रामिंग सदियों से ही गलत हुआ है। और हम इसे अभी भी गलत नहीं मान रहे हैं।
तो इसका कारण क्या है? और उसका निवारण यानि समाधान क्या है? मेरे विचार से यह बिल्कुल सरल है। सरल यानि आसान है। इसलिए ज्यादातर लोगों का ध्यान इस पर नहीं गया है। अगर किसी ने बताया भी है तो उस पर अमल नहीं हुआ। विरोध ज्यादा हुआ। समाज में यह अमान्य हो गया। असल में समाज या व्यक्ति जिस किसी भी वस्तु या विचार के साथ लंबे समय तक जीता है। वह वस्तु या विचार उसे अच्छा लगने लगता है। और उससे प्यार भी हो जाता है। उसे वह छोड़ना भी नहीं चाहता, चाहे नुकसान कुछ भी हो। गंदे नाले के बगल में रहने वालों को क्या बदबू की आदत नहीं हो जाती है? हाँ तो अब कारण और निवारण के बारे में विचार किया जाये। कारण है मनुष्य का नि:स्वार्थ भावना से जीवन जीने की कल्पना करना या मनुष्य को नि:स्वार्थ भावना से जीवन जीने की शिक्षा देना। निवारण यानि समाधान है मनुष्य निजस्वार्थ की भावना से जीवन जीना शुरू कर दें। असल में दुनिया में सबसे मुश्किल काम यही है। स्वयं के लिए जीना, लेकिन उपदेशक आपको यह बात नहीं बतायेंगे। अगर बता दें तो सबका दुकान बंद हो जायेगा। महात्मा, साधक संत वह नहीं है जो नि:स्वार्थ भावना से जी रहे हैं या जीने की शिक्षा दे रहे हैं। वे तो स्वयं दिग्रभ्रमित हैं और दूसरों को भी भ्रमित कर रहे हैं। कहा भी गया है अंधा गुरू बहिर चेला, बीच नरक में ठेलम ठेला। महात्मा या संत वह है जो निजस्वार्थ यानि अपने स्वार्थ के लिए सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीते हैं। मेरा तो मानना है कि ऐसे लोग दुनिया में बिरले ही मिलेंगे। जैसे—जैसे स्वार्थी लोगों की संख्या बढ़ती जाऐगी वैसे—वैसे पृथ्वी स्वर्ग बनती जायेगी। अगर आप मेरे इस विचार पर हँसना चाहते हैं तो जरूर हँसिये और मेरा विचार है कि आप जरूर हँसेगें। पर बिना इस विचार को सुने एवं चिंतन किये अगर आप छोड़ देंगे तो यह आपकी हँसी, आप पर ही होगी। शायद मैं दुनिया में पहला व्यक्ति होउँगा जो यह कह रहा है कि मानव अपने स्वार्थ यानि हित के लिए काम करके ही मानव एवं मानवता की सेवा एवं रक्षा कर सकता है, यह आपने सही सुना। मैं ऐसा ही कह रहा हूँ एवं यह सच भी है। एक बार आप ज्ञान की पोथियों को अलग रखकर प्रकृति को देखने का प्रयास किजिये। हो सकता है कि यह बात आपके समझ में आसानी से आ जाये। एक पेड़ को दूसरे पेड़ के लिए बढ़ते हुए या प्रकाश संश्लेषण करते हुए आपने देखा है। शायद नहीं तो पेड़ को लड़ते हुए भी आपने नहीं देखा होगा। पेड़ स्वार्थी है खुद के लिए जीता है। लेकिन कभी भी वातावरण से हवा, पानी, धूप, खनिज जरूरत से ज्यादा नहीं लेता हैं पशु—पक्षी स्वार्थी है, खुद के लिए ही जीता है। आपको क्या लगता है वह कभी जरूरत से ज्यादा खाने का प्रयास करता है। मनुष्य के अलावा पृथ्वी पर अन्य सभी जीव—जंतुओं का उद्देश्य कभी भी परोपकार करना नहीं रहा है। उसका काम तो सिर्फ प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने भर है। इसलिए मनुष्य के अलावा अन्य किसी जीव—जंतु को भोजन के लिए काम नहीं करना पड़ता है।
अब एक मनुष्य पर इसे आजमाकर देखते हैं। एक किसान अगर स्वार्थी हो जायेगा। वह खुद के हित के लिए जीने के लिए बचनवद्ध हो गया तो क्या होगा? स्वार्थ को बड़े पैमाने पर देखने का प्रयास किजिये। अगर वह स्वार्थी होगा तो वह अपने बारे में सोचेगा। अगर वह अपने बारे में सोचेगा तो वह अपनी पत्नी और बच्चों के बारे में अवश्य सोचेगा। क्योंकि बच्चे ही भविष्य की पूँजी है। अगर वह स्वार्थी होगा तो उसे पत्नी और बच्चों से अवश्य प्यार होगा। वह अपने बचों के लिए ऐसा अनाज कभी नहीं उगायेगा, जो उसे बीमार कर दे। वह अपने फसलों में जहर कभी नहीं डालेगा। वह वातावरण को नुकसान एवं प्रदुषण करने वाले काम कभी नहीं करेगा। नकली दूध बनानेवालो को अगर यह बताया जाये कि आप नकली दूध बेचते हो, कोई नकली दवा अगर आपको या आपके बीमार बच्चे को देगा तो कैसा रहेगा। अगर नकली दवा से आपके बच्चे या आपके परिवार के किसी सदस्य की मौत हो जाये तो आप जैसा महसूस करेंगे, वैसा ही कोई आपके नकली दूध को पीकर महसूस करता है। वातावरण को प्रदुषित करने वालों को यह बताया जाये कि इस प्रदूषण की वजह से आप या आपके बच्चे बीमार हो सकते हैं। हो सकता है बीमारी की वजह से आपकी या आपके बच्चे की मोत भी हो सकती है तो उसे स्वार्थवश अपने कर्त्तव्य का ख्याल आयेगा। लोगों को उनके गलतियों के दुष्परिणामों के बारे में जब खुद उनसे लिंक करके नहीं बताया जायेगा तब तक वह न तो अपनी गलतियों को मानेगा, न ही उसके दुष्परिणामों को। दुनिया के हर प्राणी प्राकृतिक रूप से स्वार्थी है। इसलिए हर गलत कामों के दुष्परिणामों को जब तक उनके करने वाले से लिंक करके नहीं बताया जायेगा, तब तक वह गलत करने से रूकेगा नहीं। हो सके तो गलत करने वालों को उनके गलत काम के परिणाम उस पर करके दिखाया जाये। जहाँ इसे वास्तविक रूप से करना संभव हो वहाँ वास्तविक रूप से अवश्य किया जाए, वर्णा काल्पनिक रूप से तो उसे बताया ही जाये।
जो लोग परोपकार या मदद करने पर जोर देते हैं कि जरूरतमंद लोगों की मदद या सेवा करनी चाहिए । जरा सोचिये वे लोग जरूरत मंद हुए ही क्यों? हम पोघों के जड़ में पानी डालने हैं कि टहनियों एवं पत्तों में। किसी भी समस्या का समाधान अगर समस्या का जड़ खोजकर किया जाए तो वह समस्या दुबारा उत्पन्न नहीं होगी। कोई अनाथ क्यों हो गया? अनाथ अगर प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुआ है तो हमारी परोपकार या मदद कयों? यह सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि उस अनाथ की देखभाल करने की व्यवस्था हो। अगर अनाथ या असहाय परिवार द्वारा छोड़ दिये जाने की वजह से हुआ है तो उसके परिवार के लोगों को यह बताया जाए कि कल उसकी भी हालात ऐसी ही हो जाएगी। आजकल ज्यादातर असहाय गरीबी या अपने सगे संबंधियों के दुत्कारे जाने के कारण से ही हुआ है। हमारा कर्त्तव्य उस व्यवस्था को ठीक करने का होना चाहिए न कि उस व्यवस्था को बढ़ावा देने का। अगर अमीर माँ—बाप के बच्चे अपने माँ—बाप की देखभाल नहीं करते हैं। उनके लिए एक सरल उपाय है। सरकार उनकी संपत्ति जब्त कर ले और उस बुजुर्ग दंपत्ति को या उनमें से जो भी बचा हो उसे बृद्धाश्रम में रहने की व्यवस्था कर दें। आप यकीन मानिए सारे के सारे बृद्धाश्रम बंद हो जायेंगे। गरीब, अनाथ, असहाय जो सड़क पर दिख रहे हैं। जहाँ—तहाँ झुग्गी बनाकर रह रहे हैं। अगर लोगों को लगता है कि कि उनकी मदद करनी चाहिए। हाँ अवश्य कीजिए। लेकिन दो—चार रूपये देकर नहीं एकाध लाख देकर पर उसके पहले उसका नसबंदी करवा दें। अगर उसके कम से कम एक संतान हो तो । हो सकता है यह आपको अटपटा लगेगा। अगर ऐसा हुआ तो शत—प्रतिशत लोग सुधर जायेंगे। शहर साफ हो जायेगी। गाँव समर्थ हो जायेगी। अगर किसी को सरकारी या गैर सरकारी सुविधा देना हो तो परिवार नियोजन उसके लिए आवश्यक हो। शत—प्रतिशत जनता कार्यकारी समूह में होंगे।
समस्या यह है कि भारत में गरीब, गरीब रहकर मजा ले रहे हैं। उसके समाजसेवक या राजनेता उसे गरीब बनाये रखकर मजा ले रहे हैं और सरकारी तंत्र उस गरीब को प्रायोजित कर मजा ले रहे हैं। न रोग मिटे न रोगी और व्यापार चलता रहे। यही सिलसिला है। कुल मिलाकर यह निष्कर्श निकलता है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वार्थी होना होगा। अगर दूसरे का कल्याण चाहते हैं तो, अगर दूसरे का भला चाहते हैं तो।