डायनामाईट के आविष्कारक अल्फ्रेड नॉबेल को जब इसके दुरूपयोग के बारे में पता चला तो वे बहुत दुखी हुए, और अपनी भूल सुधारने के लिए नॉबेल पुरस्कार देने की व्यवस्था की। सोशल मीडिया के निर्माताओं को इस तरह का कभी अहसास नहीं होगा। असल में मीडियावालों को तो अब अहसास होना ही बंद हो गया है। वे वास्तव में अब संवेदनहीन हो चुके हैं। समाज में संवादहीनता और संवेदनहीनता फैलाना तो मीडिया का ही काम रह गया है। समाचार चैनलों पर पक्षकारों एवं चाटुकारों का रूतबा देखिये, उनकी शैली पर गौर कीजिये। दस पैनलिस्ट जो भले ही अपने विषय के सर्वज्ञ हो पर एंकर अपने को सुप्रीम कोर्ट का जज ही समझता है। और मीडिया प्रभारियों को ऐसे लड़वाता है जैसे लोग मुर्गों को लड़वाता है। और रिर्पोटर की दुनियाँ की निराली है। मोर्चरी की भी फुल मेकअप में रिर्पोटिंग हँस—हँस कर होती है। एंकारो/रिर्पोटरों में अब शेर और शेरनियों की दहाड़ निकालने की होड़ लगी है। अच्छा है यह दौर भी।
इस बीच सोशल मीडिया भी अपना रास्ता बना चुका है। वह अब नाला से महानदी बन चुका है। गंगा जैसी इसमें ज्ञान की गंगा बहाने वालों की कमी कहाँ होगी! जब कुछ नहीं था तब तो हम विश्वगुरू थे, अब तो सबकुछ है। कहा भी गया है अंधों के हाथ में बटेर। अब दिन—रात ज्ञान की गंगा बहाते—बहाते लोग थक भी रहे हैं। इसीलिए उस गंगा की तरह इस गंगा में भी कचड़ा डालना शुरू कर दिये। देखते—देखते यह अब कचड़ामय हो चुकी है। लेकिन यहाँ एक पेंच हैं। लोगों को यह कचड़ा, कचड़ा नहीं लगता। बिल्कुल पॉलीथिन बैग की तरह। अगर लोगों को पॉलीथिन बैग कचड़ा जैसा लगता तो शायद उसका प्रयोग कतई नहीं करते। लेकिन है तो वह कचड़ा ही और ऐसा कचड़ा जो लाखों साल तक अपना गुण नहीं बदलता। ऐसे ही कचड़ों को सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाने का काम ज्यादातर लोग कर रहे हैं। असल में उनका दोष भी नहीं हैं। उन्हें भी यह कचड़ा नहीं लगता। पर यह कचड़ा भी ताउम्र लोगों के दिमाग को जाम कर देता है। ज्ञान के प्रवाह को बंद कर देता है। जैसे हर्ट में रक्त प्रवाह बंद होने से हर्ट अटैक होता है, वैसे ही दिमाग में ज्ञान के प्रवाह बंद होने से अटैक होता है।पर वैज्ञानिकों ने अभी इसका नाम नहीं दिया है। हाँ, इस अटैक से इंसान सिर्फ मरता ही नहीं है, मारता भी है। इस अटैक के बाद वह बेहद खतरनाक हो जाता है। इसके दो प्रकार होते हैं। एक में प्रत्यक्ष रूप से लक्षण दीखता है। उसे आप कई तरह के नामों से पुकारते हैं, जैसे आतंकवादी, माआवादी, धर्मयोद्धा आदि—आदि। दूसरे में लक्षण गौण रहते हें। वे वायरस की तरह सिर्फ प्रतिक्षण जनसंख्या बृद्धि में लगे रहते हैं। यानि लोगों को अपने जैसे बनाना। माध्यम कोई भी हो, लोगों के दिमाग में ज्ञान के प्रवाह को बंद करने की व्यवस्था करना। वास्तव में ऐसे गौण लक्षण वाले लोग समाज में प्रतिष्ठित भी है एवं उच्च पदों को भी प्राप्त करते हैं। अब कचड़े का उदाहरण देखिये। दो—चार दिन पहले ही एक पोस्ट मिला। पोस्ट इस प्रकार था—
85 प्रतिशत शुद्रों तुमको शर्म नहीं आती 15 प्रतिशत सवर्णों की सरकार बनाते हो और फिर उनसे अपने अधिकारों की भीख मांगते हो।
पढ़ने के बाद सबको लगता है, खासकर 85 प्रतिशत वालो को कि यह सच है। वाकई लिखनेवाले/गढ़नेवाले को नॉवेल पुरस्कार मिलना चाहिए। क्या खोजा है? इतनी मेहनत तो एडीशन बल्ब बनाने में भी नहीं किया होगा। पर लेखक से यह पूछिये कि जब 85 प्रतिशत वाले सत्ता में रहते हैं तो क्या उखाड़ते हैं? क्या छीलते हैं? सामाजिक न्याय के पुरोधा के शासनकाल के समय मैं कॉलेज में था। व्याख्याता कॉलेज में उतने दिन ही पढ़ाते थे, जितने दिनों में उनके प्राईवेट ट्यूशन क्लास फुल नहीं हो जाता थी। जिनको ट्यूशन नहीं पढ़ाना होता था वे कॉलेज में दो—चार दिन भी नहीं पढ़ाते थे।
जनसंख्या नियंत्रण एवं बेहतर शिक्षा के बिना किसी भी समाज का विकास असंभव है। चूँकि इस विषय को लेकर विवाद नहीं हो सकता है। इसलिए यह विषय किसी का पसंदीदा नहीं है। एक दलित—पिछड़ा के मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति बन जाने से समाज का अगर विकास हो सकता है तो अबतक देश विकसित हो गया होता। मजे की बात अगर यह सत्तासीन हो भी जाते हैं और होते भी हैं तो फिर करते क्या हैं? सत्ता में रहते हुए अपने चहेतों के अलावा ये किसी की भलाई किये हों तो इनके कार्यकालों के पन्ने खोलकर देख लें। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि 15 प्रतिशत के पक्ष के लोग दूध के धूले हैं। लेकिन मैं मानता हूँ कि परिवर्तन की संभावना भी उन्हीं में छिपा है। बिना उनके अगर आप परिवर्तन करने में समर्थ होते तो यह परिवर्तन हो गया होता। फिर भी जिनको जहर फैलाना है वे फैलाते रहेंगे ही।