चतुर्थ अध्याय नीति : 15
ज्ञान का अभ्यास निरंतर करते रहना चाहिए
चाणक्य नीति के चतुर्थ अघ्याय के पंद्रहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ज्ञान को स्थायी एवं उपयोगी बनाए रखने के लिए निरंतर अभ्यास करना जरूरी है। शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान वैसे हो जाता है जैसे कि बढ़िया से बढ़िया भोजन भी बदहजमी में लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाता है और विष का काम करता है। निर्धन व्यक्ति के लिए सभाओं, गोष्ठियों, खेलों ओर मेलों—ठेलों में जाना प्रतिष्ठा के भाव से अपमानित करनेवाला ही सिद्ध होता है। उसे वहां नहीं जाना चाहिए।