तन तेरी, मन तेरी। और माँ यह जीवन तेरी। है क्या मेरा जो करूं तुम्हें अर्पण ? जो तेरा है, तुम्हें करूं कैसे समर्पण? कली
Category: स्वरचित कविताएं
वन्दना
मातेश्वरी तू धन्य है करूँ कैसे बखान। करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान। तुम्हारी कृपा से माँ मैंने, यह दैव दुर्लभ मानव
मशाल एवं इंसान
मशाल लेकर जो खड़ा है, ढ़ूँढ़तें हैं लोग उसे अंधेरों में। कितना नासमझ है ये दुनिया। ढ़ूँढ़तें हैं निशान राख के ढ़ेरों में। कल तक
मानव
आज का मानव एक सरल रेखा पर दौड़ रहे हैं बेतहाशा। क्षण भर में वे अपने लक्ष्य को पाने का करते हैं आशा। उन्हें फुरसत
कल और आज
सिमटती गई शनैः शनैः तम की चादर। छिपते गये चोरों की भांति नभ से नभचर। फैल गई भू पर रवि रश्मियाँ। बनी पुष्प खिलकर कलियाँ।
गाँधी तेरे देश में
असत्य, हिंसा, दुराग्रह की बहती है, सदा, अविरल त्रिवेणी गंगा। व्यभिचार, भ्रष्टाचार में गोता लगा रहे हैं, देश-सेवक जनसेवक होकर नंगा। पश्चिमी कूड़ा-कर्कटों को सजा
खोजो तो जरा।
खोजो तो जरा। पथ्थरों में ढृढता। पुष्पों में कोमलता। झड़नों में चंचलता। हिमखंड में शीतलता। मंद समीर में मादकता। वाणी में मधुरता। लवों पर माधुर्यता।
होली आई
रंग-गुलाल और लेकर फाल्गुनी वयार। मधुमास में होली आई। आम्र मंजरों की गंध। दरख्त के नव पल्लवों के संग। चहुँ ओर हरियाली लाई। मधुमास में
आयें युग का मान बदल दें
सदियों से शोषित-दलित और उपेक्षित, उपजाति, कुरी गोत्र में खंडित। अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता से ग्रसित। बिन मांझी की नौका सी दिग्भ्रमित। कोटि-कोटि मानव का अज्ञान
अमर शहीद जुब्बा सहनी के प्रति
जुब्बा चैनपुर का ध्रुवतारा, भारत का अनमोल लाल था। दीन -हीन असहायों का बल, मूक ह्रदय का झंकृत ताल था। जुब्बा नाम था उस शूरवीर
ग़ज़ल (३)
आपका आना कितना खुशगवार लगता है, पर इस तरह छोड़कर जाते क्यों हैं? हम भी मोहब्बत कम नहीं करते, आप इस तरह प्यार जताते क्यों
ग़ज़ल (२)
इस तरह मुस्कुरा कर नहीं सजा दीजिए, जुर्म क्या है मेरा सरकार बता दीजिए। इतने करीब रहके भी कितने दूर-दूर हैं, इस फासला को एकबार
ग़ज़ल (१)
चारों तरफ हवा है कि हवा नहीं है। ये मर्ज ऐसा है कि इसकी दवा नहीं है। खुदकुशी कर रही हैं, रोज-रोज हजारों लडकियां ,
मेरी अभिलाषा
हर घर में दीप जले, हर उपवन में फूल खिले। भूलकर गिले शिकवे, आपस में सब गले मिले। मेरी अभिलाषा है। जाति धर्म के लिए
दौड़
जिन्दगी की इस दौड़ में कौन नहीं नजर आता है भागते हुए? नाम, यश, माया के मोह में नर्तकों सा नाचते हुए। खाली गोदाम हो
हमें न चाँद चाहिए, न चमन चाहिए।
हमें न चाँद चाहिए , न चमन चाहिए। हमें अपने ही घर में अमन चाहिए। पड़ोसियों के ताप से कश्मीर पिघल रहा है। स्वच्छंदता के
विश्व गुरू व्यास के प्रति
प्रति वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा को तुम्हारी याद लिए। आसमान में बदल उमड़ आते हैं। श्रद्धा – सुमन तुम्हें अर्पित करने को, वर्षा की कुछ बूंदे
माँ
जाऊँ तो कहॉ जाऊँ माँ? व्यथा अपनी किसे सुनाऊँ माँ ? ग्लानी गरल पीकर कैसे? अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ। देखकर मेरी हालत ऎसी, कोई