अरस्तू ने कहा था मनुष्य प्राकृतिक रूप से सामाजिक पशु (प्राणी)है। देश और काल के हिसाब से यह वक्तव्य उस जमाने में पूरे संसार के लिए सही था। लेकिन हमलोग अभी भी इसे सच मानकर रट रहें हैं और अपने बच्चों को भी रटा रहे हैं। मनुष्य अब सामाजिक प्राणी नहीं रहा। मनुष्य सामाजिक प्राणी तब था जब सामाज का दायरा और परिभाषा सीमित था। संभवत: एक छोटा सा समूह या कबीला। तब उनकी दुनिया बस उतनी भर थी यानि अपना कबीला या समूह। हलांकि तब भी वह दूसरे कबीले के लोगों से लड़ने से बाज नहीं आता था। फिर भी वह अपने समाज के लिए शत—प्रतिशत सामाजिक प्राणी था। उसके बाद तो मनुष्य समाज के नये अर्थ ढ़ँढ़ते रहे। धीरे—धीरे समाज का मतलब धर्म, जाति, उपजाति, कुरी एवं गौत्र तक पहुँच चुका। तो क्या कहेगें मनुष्य प्राकृतिक रूप से धार्मिक प्राणी या जातीय प्राणी है? उस दौर में मनुष्य प्राकृतिक रूप से सामाजिक प्राणी नहीं रहे वे तब शिक्षित प्राणी हो गये। यानि मनुष्य को जिस प्रकार की शिक्षा मिली वे उस प्रकार के प्राणी हो गये। अब मनुष्य सिर्फ शिक्षा पर निर्भर नहीं रहे। वे अब हर क्षेत्र में प्रशिक्षित हो रहे हैं। अब हालात ऐसा है कि सर्कस के शेर भी प्रशिक्षित पशु है और मानव भी उस शेर की भाँति ही प्रशिक्षित पशु हैं। समाज और शिक्षा का अब कोई मतलब नहीं रहा। अब मानसिक और शारीरिक प्रशिक्षण देकर मानव से कोई भी पशुता का कार्य करवा सकते हैं। और मानव अपने आपको एक प्रशिक्षित पशु सिद्ध करने में जरा भी देर नहीं लगायेगा। आप विश्व के किसी भी कोने में चले जाये वहाँ आपको प्रशिक्षित पशु ही मिलेंगे, बशर्ते वहाँ मानव सभ्यता विकसित हो चुका हो। घने जंगलो में, बीहड़ों में गुफाओं में या विकसित मानव समूहों से जो मानव दूर रहरहे हैं, उनमें ही थोड़ी—बहुत सामाजिकता शेष है।
उत्तरोत्तर विकास हेतु संकल्पित शिक्षा चाहे वह सामाजिक हो, वैज्ञानिक हो या धार्मिक हो मानव में मानवीय गुणों को विकसित करने के बजाय पशुता का विकास चरणबद्ध तरीकों से करता रहा। पृथ्वी पर हुए सारे युद्ध शिक्षण का ही दुष्परिणाम था अन्यथा युद्ध की कोई बजह नहीं हो सकता है। समाज का मतलब ऐसे समूह से रहा है जिसके सदस्य सुख—दुख में एक दूसरे का साथ दे, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के, बिना स्वार्थ के। लेकिन काफी पहले से जब से शिक्षा का विस्तार हुआ, समाज का पतन होना शुरू हुआ। विश्वयुद्धों में मानव समूहों का हिसाब सुख—दुख का न होकर राजनैतिक स्वार्थ की पराकाष्ठा थी। जापान के दो शहरों को नष्ट किया गया शिक्षित, प्रशिक्षित एवं संगठित मानव समूहों द्वारा। मानवीय दृष्टिकोण से इसे आप हो सकता है सही भी साबित कर दें, क्योंकि कभी भी पशु ऐसा जनसंहार कर ही नहीं सकता। फिर भी हमारे भाषाविद मानवता को अच्छा मानते हैं और पशुता को बुरा। बुरी प्रवृति को पाशविक प्रवृतिका नाम दिया गया। समाज के दुश्मन होते हुए भी हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहते हैं। यह कैसा समाज है एक पूरे देश में आज मानवता, मानवता को खदेड़कर भगा रहा है। निर्बलों का चीर हरण सरेआम हो रहा है और पूरा विश्व तमाशाबीन बना हुआ है। असहाय मानवों के चीखें सुनाई तो पूरे विश्व को दे रही है पर सब अपना—अपना सुपर कंप्यूटर खोल रखे हैं, हिसाब—किताब कर रहे हैं। तेल देखो, तेल की धार देखो। फिर निर्णय लो। अपना—अपना लाभ सबको चाहिए। क्योंकि हम सामाजिक प्राणी है। हम सुशिक्षित प्राणी हैं। समाचार चैनलों पर जब इस विषय पर बहस होती है तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। कुछ महिलाऐं भी इस कुकृत्य का समर्थन करती है। मतलब हत्या, बलात्कार, अपहरण अगर अपने ही धर्म के लोगों द्वारा हो तो इसे जायज ठहराने के हजारों बहाने खोजे जा सकते हैं। कुल मिलाकर यह निष्कर्श निकलता है कि मानव किस प्रकार का प्राणी है यह बताना मुश्किल है। पर यह कहा जा सकता है कि मानव एक अजीब किस्म का प्राणी है। जिसमें पृथ्वी पर पाये जा सकने वाले सारे जानवरों के गुण पाये जाते हैं। कौन सा गुण कब प्रखर हो जाये इसकी भी कल्पना नहीं की जा सकती है।