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सुख—दुख

त्रयोदश अध्याय नीति : 13-15

सुख—दुख

चाणक्य नीति के त्रयोदश अघ्याय के तेरहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जिसकी सारी ईच्छाएं पूरी होगी। जिसे मनचाहे सारे सुख मिल गए होंगे। सुख—दुख का मिलन भाग्य के अधीन है। व्यक्ति के अधीन नहीं। अत्: जो चीज अपने वश में न हो उसके लिए दुखी नहीं होना चाहिए एवं संतोष करना चाहिए।

वहीं चौदहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि जैसे हजार गायों में भी बछड़ा अपनी ही मां के पास जाता है। उसी तरह किया हुआ कर्म व्यक्ति के पीछे—पीछे जाता है। वहीं पंद्रहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि जिसका चित्त स्थिर नहीं हो, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच सुख मिलता है न हीं वन में। लोगों के बीच में रहने पर उनका साथ जलाता है तथा वन में अकेलापन जलाता है।

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