आडंबर भी आवश्यक है

नवम अध्याय नीति :10

आडंबर भी आवश्यक है

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के दसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि चाहे सांप में विष हो या न हो, इसे कौन जानता है किंतु फन उठाये हुए सांप को देखकर लोग डर अवश्य जाते हैं। विषहीन सांप को भी अपनी रक्षा के लिए फन फैलाना पड़ता है। समाज में जीवित रहने के लिए व्यक्ति को कुछ दिखावा या क्रोध भी करना पड़ता है।

इनसे डरना नहीं चाहिए

नवम अध्याय नीति : 9

इनसे डरना नहीं चाहिए

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के नौवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी उंचे पद पर न हो और धनवान भी न हो, ऐसा व्यक्ति रूठ जाने पर किसी का क्या बिगाड़ लेगा  और प्रसन्न हो जाने पर किसी को क्या दे सकेगा? ऐसे व्यक्ति का रूठना या खुश होना कोई मायने नहीं रखता।

इनसे कोई हानि नहीं

नवम अध्याय नीति : 8

इनसे कोई हानि नहीं

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के आठवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वेदों का अध्ययन ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है, किन्तु जो ब्राह्मण धन कमाने के लिए वेद पढ़ता है तथा शूद्रों का अन्न खाता है, वह ब्राह्मण विषहीन सांप के समान होता है। ऐसा ब्राह्मण अपने जीवन में अच्छा काम नहीं कर सकता।

इन्हें जगाएं नहीं

नवम अध्याय नीति :7

इन्हें जगाएं नहीं

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के सातवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि सांप, राजा, शेर, बर्र (ततैया), बच्चा, किसी दूसरे व्यक्ति का कुत्ता तथा मूर्ख — ये सात सोए हुए हों, तो सोए रहने दें। इन्हें जगाना नहीं चाहिए।

इन्हें सोने न दें

नवम अध्याय नीति : 6

इन्हें सोने न दें

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के छठी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विद्यार्थी को,नौकर को, रास्ते में सोये हुए राहगीर को, भूखे व्यक्ति को, किसी बात से अत्यंत डरे हुए व्यक्ति को, किसी गोदाम आदि के चौकीदार को तथा द्वारपाल को सोने नहीं देना चाहिए। यदि ये सोये हुए हों तो इन्हें जगा देना चाहिए।  

विद्या का सम्मान

नवम अध्याय नीति : 5

विद्या का सम्मान

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के पाँचवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विद्वान लोग पहले ही गणित—विद्या से सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहणों के बारे में बता देते हैं। न तो आकाश में कोई आदमी भेजा जा सकता है, न वहां किसी के साथ बात की जा सकती है, न कोई सूर्य या चन्द्रमा से मिल सकता है और न किसी ने पहले से बताया है कि ये ग्रहण कब पड़ेंगे। इस प्रकार के ज्ञानी विद्वानों का संसार में सभी सम्मान करते हैं।

सबसे बड़ा सुख

नवम अध्याय नीति: 4

सबसे बड़ा सुख

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के चौथी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि औषधियों में गिलोय महत्वपूर्ण है। भोजन करने और उसे पचाने की शक्ति सदा बनी रहे यही सबसे बड़ा सुख है। हाथ, कान, नाक आदि सभी इन्द्रियों में आंखे सबसे आवश्यक है। सिर शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।

विडंबना

नवम अध्याय नीति : 3

विडंबना

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के तीसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सोना कीमती धातु है पर इसमें सुगंध नहीं होती। गन्ने में मिठास होती है, पर इसमें फल नहीं लगते। चंदन में सुगंध है पर फूल नहीं आते। विद्वान व्यक्ति निर्धन होते हैं और राजाओं को लंबी आयु नहीं होती। क्या सृष्टि बनानेवाले ब्रह्मा को इन सब बातों की सलाह पहले किसी ने न दी होगी?

दुष्ट का नाश

नवम अध्याय नीति : 2

दुष्ट का नाश

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के दूसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो दुष्ट पहले एक दूसरे को अपने भेद बता देते हैं और फिर उन भेदों को अन्य लोगों को बता देते हैं, ऐसे लोग उस सांप के समान नष्ट हो जाते हैं, जो अपने बिल के अंदर ही मारा जाता है जिसे बचने का काई अवसर नहीं मिलता है।

मोक्ष

नवम अध्याय नीति : 1

मोक्ष

चाणक्य नीति के नवम अघ्याय के पहली नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि मनुष्य मोक्ष चाहता है तो सबसे पहले अपनी इन्द्रियों के विषयों को विष समझकर इनका त्याग करना चाहिए। फिर क्षमा, दया आदि गुणों को अपनाना चाहिए तथा सच्चाई की राह पर चलते हुए अपनी आत्मा को पवित्र करना चाहिएं तभी मुक्ति मिल सकती है।

इनसे हानि ही होती है

अष्टम अध्याय नीति : 22

इनसे हानि ही होती है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के बाइसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस राजा के राज्य में अन्न की कमी हो, जो यज्ञ के ब्राह्मण यज्ञ के मंत्र नहीं जानते हों, तथा जो यजमान यज्ञ में दान न देता हो ऐसा राजा, ब्राह्मण एवं यजमान तीनों ही राष्ट्र को नष्ट कर देते हैं। इनका यज्ञ करना राष्ट्र के साथ शत्रुता दिखाना ही है।

दुर्गुणों का दुष्प्रभाव

अष्टम अध्याय नीति : 18

दुर्गुणों का दुष्प्रभाव

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के अठारहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि असंतुष्ट ब्राह्मण तथा संतुष्ट राजा नष्ट हो जाते हैं। लज्जा करने वाली वैश्या और निर्लज्ज कुलीन घर की बहु नष्ट हो जाती है। मतलब ब्राह्मण को संतोषी होना चाहिए। जो ब्राह्मण संतोषी नहीं है उसका नाश हो जाता है।

इन्हें शुद्ध समझना चाहिए

अष्टम अध्याय नीति : 17

इन्हें शुद्ध समझना चाहिए

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के सतरहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भूमिगत जल शुद्ध होता है, पतिव्रता स्त्री शुद्ध होती है। प्रजा का कल्याण करने वाला राजा शुद्ध होता है तथा संतोषी ब्राह्मण शुद्ध होता है।

दुर्गुण सदगुणों को नष्ट कर देती है

अष्टम अध्याय नीति : 16

दुर्गुण सदगुणों को नष्ट कर देती है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के सौलहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति कितना ही रूपवान यानि सुंदर हो यदि गुणवान न हो तो उसे सुंदर नहीं कहा जा सकता है। बुरे चाल चलन वाला व्यक्ति अपने कुल को बदनाम कर देता है। अयोग्य व्यक्ति विद्या का सदुपयोग नहीं कर पाता है। जो व्यक्ति अपने धन का भोग नहीं कर पाता है उस धन को नष्ट ही समझना चाहिए।

इनसे शोभा बढ़ती है

अष्टम अध्याय नीति : 15

इनसे शोभा बढ़ती है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के पंद्रहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गुणवान व्यक्ति के गुण ही उसकी सुंदरता होते हैं। अच्छा आचरण कुल का नाम उँचा करके उसकी सुंदरता बढ़ाता है। किसी भी विषय विद्या में निपुणता प्राप्त करने पर ही विद्या सार्थक होती है। यही विद्या की शोभा है। धन का भोग करना ही धन की शोभा है।

संतोष बड़ी चीज है

अष्टम अध्याय नीति : 14

संतोष बड़ी चीज है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के चौदह नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है इसे यमराज के समान ही भयंकर समझना चाहिए। तृष्णा यानि ईच्छाएं वैतरणी नदी के समान है, इससे छूटना मुश्किल है। विद्या कामधेनु के समान सभी इच्छाओं को पूरा करनेवाली है। संतोष परम सुख प्रदान करनेवाले नंदन वन के समान है।

शांति ही तपस्या है

अष्टम अध्याय नीति : 13

शांति ही तपस्या है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के तेरहवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शांति के समान कोई तपस्या नहीं है। संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है। तृष्णा से बढ़कर कोई रोग नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।

भावना में ही भगवान है

अष्टम अध्याय नीति : 11—12

भावना में ही भगवान है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के ग्यारहवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वैसे तो मूर्ति ईश्वर नहीं है फिर भी कोई सच्ची भावना से श्रद्धा के साथ लकड़ी पत्थर या किसी भी धातु की मूर्ति की ईश्वर के रूप में पूजा करता है तो भगवान उस पर अवश्य प्रसन्न होते हैं। उसे अवश्य सफलता मिलती है।

वहीं बारहवी नीति में आचार्य कहते हैं कि ईश्वर वास्तव में लकड़ी, मिट्टी आदि की मूर्तियों में नहीं है। यह व्यक्ति की भावना में रहता है। व्यक्ति की जैसी भावना होती है, वह ईश्वर को उसी रूप में देखता है। इसलिए यह भावना ही सारे संसार का आधार है।

शुभ कर्म करें

अष्टम अध्याय नीति : 10

शुभ कर्म करें

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के दसवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि देवता का वास न लकड़ी में है, न ही पत्थर में। देवता का निवास स्थान तो मनुष्य के हृदय में होता है, उसकी भावना में होता है। यदि भावना है तो मूर्ति साक्षत देवता है, अन्यथा वह साधारण लकड़ी—पत्थर के अलावा कुछ भी नहीं है। मूर्ति में देवता की प्रतिष्ठा का आधार भावना ही है। शुद्ध भावना से किये गये यज्ञ से ही मनुष्य को लाभ होता है। अत: श्रद्धा भाव से ही शुभ कर्मों का संपादन करना चाहिए।

विडम्बना

अष्टम अध्याय नीति : 9

विडम्बना

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के नौवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि बुढ़ापे में पत्नी की मृत्यु, धन का भाईयों के हाथ में चला जाना, भोजन के लिए भी पराधीनता, इसे पुरूष के लिए विडम्बना ही समझना चाहिए। मतलब बुढ़ापे में पत्नी ही सहारा होती है और पत्नी अगर साथ छोड़ जाये तो बहुत दुख होता है। धन अगर भाईयों के हाथ में चला जाये तो व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता है केवल कसमसाकर रह जाता है। भोजन के लिए भी दूसरे का मुँह ताकना, इससे बड़ी विवशता और कुछ नहीं हो सकता है।

ज्ञान को व्यवहार में लाना चाहिए

अष्टम अध्याय नीति : 8

ज्ञान को व्यवहार में लाना चाहिए

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के आठवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ज्ञान को व्यवहार में लाना चाहिए। ऐसा न करने पर वह नष्ट हो जाता है। अज्ञानी मनुष्य, बिना सेनापति की सेना तथा पति के बिना स्त्री नष्ट हो जाती है।

पानी एक औषधि

अष्टम अध्याय नीति :7

पानी एक औषधि

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के सातवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भोजन न पचने पर जल औषधि के समान होता है। भोजन करते समय जल अमृत है तथा भोजन के बाद पानी विष का काम करता है।

स्नान से शुद्धता

अष्टम अध्याय नीति: 6

स्नान से शुद्धता

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के छठी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शरीर में तेल की मालिश करने के बाद, चितों की धुआँ लग जाने पर, संभोग करने के बाद तथा दाढ़ी—नाखून या बाल कटाने के बाद नहाना आवश्यक है। इन कामों के बाद व्यक्ति जब तक नहाता नहीं हैं तब तक चांडाल माना जाता है।

धन का सुदपयोग

अष्टम अध्याय नीति: 5

धन का सुदपयोग

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के पाँचवी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गुणी लोगों को ही धन देना चाहिए, गुणहीन को नहीं। बादल सागर से पानी लेकर मधुर पानी की वर्षा करता है। इससे पृथ्वी के समस्त जीव—जंतु जीवित रहते हैं। फिर यही जल करोड़ों गुणा होकर समुद्र में ही चला जाता है।

सबसे बड़ा नीच

अष्टम अध्याय नीति:4

सबसे बड़ा नीच

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के चौथी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि एक हजार चांडालें के बराबर बुराईयां एक यवन में होता है ऐसा विद्वानों का मानना है। इसलिए यवन को सबसे नीच मनुष्य माना जाता है। यवन से नीच कोई नहीं है।

जैसा अन्न वैसा संतान

अष्टम अध्याय नीति:3

जैसा अन्न वैसा संतान

चाणक्य नीति केअष्टम अघ्याय के तीसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति जैसा भोजन करता है, वैसी ही उसकी संतान भी पैदा होती है। सात्विक भोजन करने से संतान भी योग्य और बुद्धिमान होगी तामसी भोजन से मूर्ख संतान ही पैदा होगी। दीपक अंधकार को खाता है और काजल पैदा करता है।

दान का कोई समय नहीं

अष्टम अध्याय नीति: 2

दान का कोई समय नहीं

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के दूसरी नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दान देने के लिए कोई बाध्यता नहीं होती है। यानि गन्ना चूसने के बाद, पानी या दूध पी लेने के बाद, पान चबा लेने के बाद, कोई फल या दवा खा लेने के बाद भी पूजा, स्नान, दान के कार्य किये जा सकते हैं।

महापुरूषों का धन सम्मान है

अष्टम अध्याय नीति:1

महापुरूषों का धन सम्मान है

चाणक्य नीति के अष्टम अघ्याय के पहली नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि नीच लोगों के लिए धन ही सब कुछ होता है। धन प्राप्त करने के लिए नीच लोग हर सही—गलत तरीका अपनाते हैं। औसत आदमी सम्मान के साथ धन चाहते हैं। महापुरूष धन की अपेक्षा मान—सम्मान को ज्यादा महत्व देते हैं। मान—सम्मान ही महापुरूषों के लिए धन है।

देह में आत्मा देखें

सप्तम अध्याय नीति : 20

देह में आत्मा देखें

चाणक्य नीति के सप्तम अघ्याय के बीसवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि फूल में सुगंध होता है। तिलों में तेल होता है, लकड़ी में आग, दूध में मक्खन तथा गन्ने में मिठास ये सारे गुण पूरी वस्तु में होते हैं न कि किसी एक जगह पर। इसी प्रकार परमात्मा भी मनुष्य के सारे शरीर में रहता है। केवल ज्ञानी पुरूष ही इसे पहचान सकता है।

सबसे बड़ी पवित्रता

सप्तम अध्याय नीति : 19

सबसे बड़ी पवित्रता

चाणक्य नीति के सप्तम अघ्याय के उन्नीसवीं नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मन में बुरे विचार न आने देना, मुँह से कोई गलत बात न कहना, अपने सभी इन्द्रियों को वश मे रखना, सभी प्राणियों पर दया करना तथा सबकी भलाई करना यही मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पवित्रता है।